Tuesday, July 11, 2006

ढलते सूरज की पनाह मे चिराग जलाया उसने
डूबते माज़ी को तिनके के सहारे बुलाया उसने
हम तो कब के भूल गये थे उनके घर का पता
हमारे ही गली मे आ के हमें फिर रुलाया उसने

लहू लोहान करने के इरादे था तीर चलाया उसने
अपने हुस्न का जहर मेरे ज़िस्म मे फैलाया उसने
छोड चुके थे उम्मीद उनको हमसफर बनाने की
बेवफाई का इलज़ाम दे के कब्र मे है सुलाया उसने

बंजर गुलिस्तां मे एहसास का बीज बोया उसने
परवरिश से एक बाग़बान का फ़र्ज़ निभाया उसने
हम तरसते रहे उनका एक करम पाने के इरादे
पहले मुलाकात मे ही कर दिया हमें पराया उसने

दूर से ही देख के अंजाने मे हमें अपनाया उसने
हुस्न के शोले से सख्त बरफ को पिघलाया उसने
हम खोए ही रह गये दिन रात उनके खयालों मे
जाने किस घडी मे हम से उठा लिया साया उसने

सोए अरमानों को एक ही इशारे से जगाया उसने
गर्द पडे रूह को चाहत के दीदार मे नहलाया उसने
फिर जरूर बरसेगा वो प्यार, फिर आएगी वो बहार
यहीं कहके फिर आज मेरे दिल को मनाया उसने

सुलझे हुए शक्स को जाल मे अपने उलझाया उसने
जाम पिला पिला के है बेहोशी तक बहकाया उसने
जो डूब गया था कभी उनकी बाहों की आहोश मे
एक बून्द पानी के लिये है आज उसे तरसाया उसने

मेरे खामोश चलती जिन्दगी मे तूफान लाया उसने
ना जाने जन्नत के किस खुशी को है पाया उसने
हम ने तो जीना सीख लिया अब अपनी तनहाई मे
नही जानती वो मगर, आज किसे है खोया उसने

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